आजकल हर जगह लिबरल बैशिंग हो रही है. हर कोई ये सवाल पूछता है कि लिबरल इस पर बोल क्यों नहीं रहे, उस पर क्यों नहीं बोल रहे. पर ये पता नहीं चलता कि लिबरल कौन है. जिसके बारे में भी जरा सा अंदाजा होगा कि ये लिबरल हैं, अगले दिन वो भी लिबरल्स से प्रश्न पूछते नजर आते हैं.
ब्रिटिश फिलॉसफर जॉन लोक के लेखन से लिबरलिज्म यानी उदारतावाद का जन्म हुआ था. फिर फ्रेंच क्रांति, अमेरिकी क्रांति, साम्राज्यवाद और दो विश्वयुद्धों से होते हुए 1950 के बाद उदारतावाद हर जगह छा गया. अगर इसके मूल में जाएं तो कई तरह की बातें मिलेंगी जो राजनीति, अर्थव्यवस्था और सामाजिक व्यवस्था के अलग अलग रूपों को डिफाइन करेंगी. इसमें अलग अलग देशों में उदारतावाद को लेकर अलग अलग परिभाषाएं भी मिलेंगी. लेकिन मोटा-मोटी उदारतावाद को जो परसेप्शन है, वो इस प्रकार है- राजनीतिक उदारतावाद के मुताबिक राजनीति में सबके लिए जगह है. फिर चाहे वो व्यक्ति या दल कितना भी एक्सट्रीम में अपनी बात क्यों ना कहे. आर्थिक उदारतावाद में हर कंपनी या एंटरप्रेन्योर के लिए बराबर की जगह है. सामाजिक उदारतावाद में जाति, मजहब और लिंग से परे सबके लिए बराबर मौका देने का उद्देश्य है.
यहां पर एक बात समझनी जरूरी है कि लेफ्ट और राइट दोनों की पॉलिटिक्स से ये अलग है. जहां लेफ्ट में समाज, राजनीति और अर्थव्यवस्था को लेकर अलग अवधारणा है, वहीं राइट पॉलिटिक्स में भी लिबरल्स से अलग ही अवधारणा है. कहीं-कहीं पर ये ओवरलैप करता है जिसकी वजह से कन्फ्यूजन होता है.
सवाल ये है कि लिबरल फेल क्यों हो रहे हैं?
पूरी दुनिया में ही लिबरल्स के ऊपर प्रश्न उठाये जा रहे हैं. दक्षिणपंथ समाज की हर समस्या के लिए लिबरल्स को जिम्मेदार ठहराता है. वहीं लेफ्ट खुद को लिबरल्स से अलग बताकर उन्हीं को दोषी ठहराता है कि दक्षिणपंथ के उभार के लिए वही जिम्मेदार हैं. तो ये समस्या पैदा हो जाती है कि लिबरल कौन है क्योंकि ये पता ही नहीं चलता. फिर ये पॉलिटिक्स अमूर्त रूप में आ जाती है और इस प्रकार इसे बचाने वाले कम होते जा रहे हैं.
इसके पीछे एक बड़ी वजह है. उदारतावाद समाज के हर फ्रैक्शन के अस्तित्व को स्वीकार करता है पर संघर्ष में यकीन नहीं रखता. अगर वो अर्थव्यवस्था में सबको बराबरी देने की वकालत करता है तो फिर ये सबके लिए है. किसी लोअर क्लास या कास्ट के लिए अलग प्रीफरेंस नहीं मिलेगा और किसी बड़ी कंपनी को दरकिनार नहीं किया जाएगा. हां, ये जरूर है कि कमजोर वर्गों के लिए कुछ प्रावधानों का इंतजाम किया जाएगा. यहां पर लेफ्ट पॉलिटिक्स उदारतावाद से अलग हो जाती है. लेफ्ट पॉलिटिक्स के कर्णधार बड़ी कंपनियों को बहुत सी समस्याओं का जिम्मेदार ठहरा देते हैं. वहीं दक्षिणपंथ स्वदेशी के नाम पर कई तरह की समस्याएं पैदा कर देता है. ठीक इसी तरह सामाजिक व्यवस्था में उदारतावाद सबको बराबर मौका देना चाहता है लेकिन किसी का डॉमिनेन्स नहीं चाहता. इसमें एक दिक्कत आती है कि बराबरी की बात खूब होती है लेकिन बराबरी बहुत धीरे धीरे आती है. जैसे उदारतावाद की वजह से जातियों में कहीं कहीं बराबरी आ रही है पर उससे ज्यादा बातें हो रही हैं. नतीजा ये होता है कि वामपंथ इस बराबरी को बराबरी मानने से इंकार कर देता है. वहीं दक्षिणपंथ बराबरी की इन बातों से चिढ़ जाता है, उसे लगता है कि बराबरी की बातें कर के पूरे समाज को बर्बाद किया जा रहा है.
इसी वजह से आपको समाज में वामपंथी और दक्षिणपंथी मिल जाएंगे पर लिबरल पॉइंट आउट करना मुश्किल होगा. कुछ समय पहले तक ये बताया जा सकता था कि कौन उदारतावाद की तरफ सन्मुख है. पर अब ये बताना मुश्किल है क्योंकि लोग तुरंत कन्नी काट लेते हैं.
लिबरलिज्म फेल इसलिए हो रहा है कि इसने वक्त के साथ एक इंटेल्कचुअल खाई पैदा कर दी. उदाहरण के तौर पर अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता और बहुसंख्यक सांप्रदायिकता का मसला वो कभी जनता तक ले ही नहीं जा पाए. उन्होंने इस चीज को किताबों, आर्टिकल्स, व्याख्यानों के माध्यम से डिस्कस करने की कोशिश की. कोर्ट के फैसले को अंतिम फैसला मानते हुए वो हर वाद-विवाद को न्यायिक तरीके से सुलझाने में यकीन रखते थे. यहां पर वो चूक कर गये. जनता का एक बड़ा हिस्सा किताबों, आर्टिकल्स और व्याख्यानों- सबसे महत्वपूर्ण न्यायिक प्रक्रिया – सबसे दूर था. अगर किसी सांप्रदायिक मुद्दे का लिबरल हल प्रमाण और तर्कों के आधार पर होना था तो जनता इसे भावना के आधार पर हल कर चुकी थी. इसी तरह अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक सांप्रदायिकता का मसला जनता कभी समझ ही नहीं पाई. लिबरलिज्म के पैरोकारों को ये लगा कि आर्थिक सुधारों की वजह से जनता अपनी प्रगति में लगी रहेगी और बाकी चीजों को उदारतावाद से डील कर लिया जाएगा.
सोशल मीडिया ने छीनी सारी ताकत
ये व्यवस्था तब तक बनी रही जब तक कि सोशल मीडिया नहीं आ गया. पहले मीन्स ऑफ कम्युनिकेशन पर लिबरल्स का एकाधिकार था. अंग्रेजी पर कमांड और बहुत सी किताबों का ज्ञान उन्हें प्रभावी बनाता था. पर सोशल मीडिया आने के बाद ये एकाधिकार टूट गया. अंग्रेजी पर कमांड और किताबों का ज्ञान बेकार साबित हुआ. सौ-दौ सौ शब्दों में आप ये नहीं बता सकते कि अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता के पीछे क्या है और बहुसंख्यक सांप्रदायिकता के पीछे क्या है. दो सौ शब्दों की लड़ाई में लिबरल हार गये. जो लोग उनसे चिढ़े बैठे थे उन्होंने लिबरल्स को डिस्क्रेडिट कर दिया. फ्री स्पीच के चैंपियन को आप लगातार पचास गालियां दें तो इक्यानवीं में वो भी गाली दे सकता है. आप उनके स्टैंडर्ड पर नहीं पहुंच सके पर अपने स्तर पर घसीट जरूर लिया.
अगर उदारतावाद खुद को बचाये रखना चाहता है और समाज को आगे बढ़ाना चाहता है तो उसे खुद को रिइन्वेंट करना होगा. लोगों की भावनाओं का इन्क्लूजन जरूरी है. उसे नकार कर लिबरल नहीं बने रह सकते. उसे नकारते ही जनता आपको फासिस्ट घोषित कर सकती है. ये बहुत बड़ी विडंबना है. लोग आपके ही फ्रीडम ऑफ स्पीच की थ्योरी, आपके फासिज्म के विरोध का इस्तेमाल कर आपको ही फासिस्ट बता देगी और आप एक्सप्लेन नहीं कर पाएंगे. इसे कैसे करेंगे, वो सोचना होगा. बहुत बार ऐसा लगता है कि जनता अपनी उन भावनाओं का सम्मान चाहती है जिसे आप मूर्खतापूर्ण बताते हैं. इस पर एक बार ठहरकर सोचना होगा. क्योंकि उदारतावाद की भी कुछ बातें मूर्खतापूर्ण लगती हैं, कोई बोलता नहीं था. जैसे सुविधानुसार चीजों को सही गलत बताना. शराब, धर्म, मिथ, रिलेशन, फ्रीडम इत्यादि.