लिबरल सबके राडार पर क्यों हैं?

आजकल हर जगह लिबरल बैशिंग हो रही है. हर कोई ये सवाल पूछता है कि लिबरल इस पर बोल क्यों नहीं रहे, उस पर क्यों नहीं बोल रहे. पर ये पता नहीं चलता कि लिबरल कौन है. जिसके बारे में भी जरा सा अंदाजा होगा कि ये लिबरल हैं, अगले दिन वो भी लिबरल्स से प्रश्न पूछते नजर आते हैं.

ब्रिटिश फिलॉसफर जॉन लोक के लेखन से लिबरलिज्म यानी उदारतावाद का जन्म हुआ था. फिर फ्रेंच क्रांति, अमेरिकी क्रांति, साम्राज्यवाद और दो विश्वयुद्धों से होते हुए 1950 के बाद उदारतावाद हर जगह छा गया. अगर इसके मूल में जाएं तो कई तरह की बातें मिलेंगी जो राजनीति, अर्थव्यवस्था और सामाजिक व्यवस्था के अलग अलग रूपों को डिफाइन करेंगी. इसमें अलग अलग देशों में उदारतावाद को लेकर अलग अलग परिभाषाएं भी मिलेंगी. लेकिन मोटा-मोटी उदारतावाद को जो परसेप्शन है, वो इस प्रकार है- राजनीतिक उदारतावाद के मुताबिक राजनीति में सबके लिए जगह है. फिर चाहे वो व्यक्ति या दल कितना भी एक्सट्रीम में अपनी बात क्यों ना कहे. आर्थिक उदारतावाद में हर कंपनी या एंटरप्रेन्योर के लिए बराबर की जगह है. सामाजिक उदारतावाद में जाति, मजहब और लिंग से परे सबके लिए बराबर मौका देने का उद्देश्य है.

यहां पर एक बात समझनी जरूरी है कि लेफ्ट और राइट दोनों की पॉलिटिक्स से ये अलग है. जहां लेफ्ट में समाज, राजनीति और अर्थव्यवस्था को लेकर अलग अवधारणा है, वहीं राइट पॉलिटिक्स में भी लिबरल्स से अलग ही अवधारणा है. कहीं-कहीं पर ये ओवरलैप करता है जिसकी वजह से कन्फ्यूजन होता है.

Liberal & Liberal

सवाल ये है कि लिबरल फेल क्यों हो रहे हैं?

पूरी दुनिया में ही लिबरल्स के ऊपर प्रश्न उठाये जा रहे हैं. दक्षिणपंथ समाज की हर समस्या के लिए लिबरल्स को जिम्मेदार ठहराता है. वहीं लेफ्ट खुद को लिबरल्स से अलग बताकर उन्हीं को दोषी ठहराता है कि दक्षिणपंथ के उभार के लिए वही जिम्मेदार हैं. तो ये समस्या पैदा हो जाती है कि लिबरल कौन है क्योंकि ये पता ही नहीं चलता. फिर ये पॉलिटिक्स अमूर्त रूप में आ जाती है और इस प्रकार इसे बचाने वाले कम होते जा रहे हैं.

इसके पीछे एक बड़ी वजह है. उदारतावाद समाज के हर फ्रैक्शन के अस्तित्व को स्वीकार करता है पर संघर्ष में यकीन नहीं रखता. अगर वो अर्थव्यवस्था में सबको बराबरी देने की वकालत करता है तो फिर ये सबके लिए है. किसी लोअर क्लास या कास्ट के लिए अलग प्रीफरेंस नहीं मिलेगा और किसी बड़ी कंपनी को दरकिनार नहीं किया जाएगा. हां, ये जरूर है कि कमजोर वर्गों के लिए कुछ प्रावधानों का इंतजाम किया जाएगा. यहां पर लेफ्ट पॉलिटिक्स उदारतावाद से अलग हो जाती है. लेफ्ट पॉलिटिक्स के कर्णधार बड़ी कंपनियों को बहुत सी समस्याओं का जिम्मेदार ठहरा देते हैं. वहीं दक्षिणपंथ स्वदेशी के नाम पर कई तरह की समस्याएं पैदा कर देता है. ठीक इसी तरह सामाजिक व्यवस्था में उदारतावाद सबको बराबर मौका देना चाहता है लेकिन किसी का डॉमिनेन्स नहीं चाहता. इसमें एक दिक्कत आती है कि बराबरी की बात खूब होती है लेकिन बराबरी बहुत धीरे धीरे आती है. जैसे उदारतावाद की वजह से जातियों में कहीं कहीं बराबरी आ रही है पर उससे ज्यादा बातें हो रही हैं. नतीजा ये होता है कि वामपंथ इस बराबरी को बराबरी मानने से इंकार कर देता है. वहीं दक्षिणपंथ बराबरी की इन बातों से चिढ़ जाता है, उसे लगता है कि बराबरी की बातें कर के पूरे समाज को बर्बाद किया जा रहा है.

इसी वजह से आपको समाज में वामपंथी और दक्षिणपंथी मिल जाएंगे पर लिबरल पॉइंट आउट करना मुश्किल होगा. कुछ समय पहले तक ये बताया जा सकता था कि कौन उदारतावाद की तरफ सन्मुख है. पर अब ये बताना मुश्किल है क्योंकि लोग तुरंत कन्नी काट लेते हैं.

लिबरलिज्म फेल इसलिए हो रहा है कि इसने वक्त के साथ एक इंटेल्कचुअल खाई पैदा कर दी. उदाहरण के तौर पर अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता और बहुसंख्यक सांप्रदायिकता का मसला वो कभी जनता तक ले ही नहीं जा पाए. उन्होंने इस चीज को किताबों, आर्टिकल्स, व्याख्यानों के माध्यम से डिस्कस करने की कोशिश की. कोर्ट के फैसले को अंतिम फैसला मानते हुए वो हर वाद-विवाद को न्यायिक तरीके से सुलझाने में यकीन रखते थे. यहां पर वो चूक कर गये. जनता का एक बड़ा हिस्सा किताबों, आर्टिकल्स और व्याख्यानों- सबसे महत्वपूर्ण न्यायिक प्रक्रिया – सबसे दूर था. अगर किसी सांप्रदायिक मुद्दे का लिबरल हल प्रमाण और तर्कों के आधार पर होना था तो जनता इसे भावना के आधार पर हल कर चुकी थी. इसी तरह अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक सांप्रदायिकता का मसला जनता कभी समझ ही नहीं पाई. लिबरलिज्म के पैरोकारों को ये लगा कि आर्थिक सुधारों की वजह से जनता अपनी प्रगति में लगी रहेगी और बाकी चीजों को उदारतावाद से डील कर लिया जाएगा.

सोशल मीडिया ने छीनी सारी ताकत

ये व्यवस्था तब तक बनी रही जब तक कि सोशल मीडिया नहीं आ गया. पहले मीन्स ऑफ कम्युनिकेशन पर लिबरल्स का एकाधिकार था. अंग्रेजी पर कमांड और बहुत सी किताबों का ज्ञान उन्हें प्रभावी बनाता था. पर सोशल मीडिया आने के बाद ये एकाधिकार टूट गया. अंग्रेजी पर कमांड और किताबों का ज्ञान बेकार साबित हुआ. सौ-दौ सौ शब्दों में आप ये नहीं बता सकते कि अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता के पीछे क्या है और बहुसंख्यक सांप्रदायिकता के पीछे क्या है. दो सौ शब्दों की लड़ाई में लिबरल हार गये. जो लोग उनसे चिढ़े बैठे थे उन्होंने लिबरल्स को डिस्क्रेडिट कर दिया. फ्री स्पीच के चैंपियन को आप लगातार पचास गालियां दें तो इक्यानवीं में वो भी गाली दे सकता है. आप उनके स्टैंडर्ड पर नहीं पहुंच सके पर अपने स्तर पर घसीट जरूर लिया.

अगर उदारतावाद खुद को बचाये रखना चाहता है और समाज को आगे बढ़ाना चाहता है तो उसे खुद को रिइन्वेंट करना होगा. लोगों की भावनाओं का इन्क्लूजन जरूरी है. उसे नकार कर लिबरल नहीं बने रह सकते. उसे नकारते ही जनता आपको फासिस्ट घोषित कर सकती है. ये बहुत बड़ी विडंबना है. लोग आपके ही फ्रीडम ऑफ स्पीच की थ्योरी, आपके फासिज्म के विरोध का इस्तेमाल कर आपको ही फासिस्ट बता देगी और आप एक्सप्लेन नहीं कर पाएंगे. इसे कैसे करेंगे, वो सोचना होगा. बहुत बार ऐसा लगता है कि जनता अपनी उन भावनाओं का सम्मान चाहती है जिसे आप मूर्खतापूर्ण बताते हैं. इस पर एक बार ठहरकर सोचना होगा. क्योंकि उदारतावाद की भी कुछ बातें मूर्खतापूर्ण लगती हैं, कोई बोलता नहीं था. जैसे सुविधानुसार चीजों को सही गलत बताना. शराब, धर्म, मिथ, रिलेशन, फ्रीडम इत्यादि.

समाज का नेचर ही फासिस्ट है, जातिगत ट्रोलिंग फासिज्म का लक्षण है

समाज का नेचर ही फासिस्ट है

देश-दुनिया के संदर्भ में हम आजकल एक शब्द बार बार देख रहे हैं- फासिस्ट. ज्योंही आप कोई राजनीतिक चर्चा करेंगे, कोई व्यक्ति गंभीरता से बताएगा कि किस कदर फासिस्ट ताकतों ने राजनीति पर कब्जा जमाना शुरू किया है और जनता उनके साथ बही जा रही है. सुनकर ऐसा लगता है जैसे चार-पांच फासिस्ट लोगों ने दुनिया की हर चीज पर कब्जा जमा लिया है और लाखों-करोड़ों लोग उनके गुलाम बन गये हैं. क्या उन चार पांच लोगों ने कोई जादू किया है? वशीकरण मंत्र चलाया है?

इसकी वजह हमें अपने समाज में खोजनी होगी. हमारा समाज बहुत तरह के लोगों से बना है. इसमें धनी, निर्धन, योग्य, अतियोग्य, नाकारा, विद्वान, अनपढ़, व्यापारी, चोर हर तरह के लोग शामिल हैं. पर इस समाज में किसकी बात ज्यादा सुनी जाती है? उसी की बात ज्यादा सुनी जाएगी जिसका ग्रुप मजबूत होगा. जिसका ग्रुप मजबूत होगा वो मानसिक और शारीरिक हिंसा करने में समर्थ होगा. ताकत की मोटा मोटी यही परिभाषा है. जो ये हिंसा करने में समर्थ होगा, क्या वो अहिंसा का मार्ग अपनायेगा? नहीं अपनाएगा. वो अपने से कमजोर लोगों को दबाने की कोशिश करेगा. अगर वो अहिंसा का रास्ता अपनाता है तो उसके ताकतवर होेने का कोई मतलब ही नहीं है. एक समूह के पास हिंसक होने के अलावा दूसरा कोई ऑप्शन नहीं है.

फासिस्ट_ या तो तुम हमारे साथ हो या फिर उनके साथ हो? नॉन फासिस्ट_ आप किसके साथ हैं?

यहीं से शुरुआत होती है फासिज्म की. वो समूह हर वक्त हिंसा नहीं कर सकता. उससे थोड़े कमजोर समूह हर वक्त डरे नहीं रह सकते. तो सबसे ताकतवर समूह अपने से नीचे के समूहों को डिस्क्रेडिट करता है. उनकी बातों का मजाक बनाता है, उन पर तरह तरह के लांछन लगाता है, उन्हें समाज में व्याप्त बुराइयों का जिम्मेदार बताता है. इस तरीके से वो उन समूहों को व्यस्त रखता है ताकि वो सफाई देते रहें और अन्य समूहों से समर्थन ना हासिल कर पायें. वो कभी भी बैठकर सही आर्गुमेंट करने की कोशिश नहीं करेगा. क्योंकि ऐसा करने में अधिकारों को खो देने का डर रहता है. उन्हें ताकत शेयर करनी पड़ेगी जो कि वो नहीं चाहते. उन्हें सवालों का जवाब देना पड़ेगा, जो कि नहीं देना चाहते. यही फासिज्म है.

इसी चीज को रोकने के लिए एक डेमोक्रेटिक समाज की संकल्पना की गई. जिसमें ताकतवर व्यक्ति की जगह बार बार बदलने की संभावना होती है. वो स्थायी रूप से ताकतवर नहीं हो सकता. इससे पहले ताकत का ट्रान्सफर युद्ध से होता था. डेमोक्रेसी के शुरुआती वर्षों में सही परिणाम मिले. एक बराबरी वाले समाज की तरफ दुनिया अग्रसर हो रही थी.

लेकिन जैसा कि आर्गुमेंट है कि समाज का नेचर ही फासिस्ट है, ताकत की आकांक्षा में पूर्ववर्ती तथाकथित श्रेष्ठ लोगों ने फिर से मुद्दों को उस तरीके से मोड़ना शुरू किया जिससे उनका आधिपत्य स्थापित हो जाए. इसके लिए फिर पुराने ही तरीकों का सहारा लिया गया. इस वजह से डेमोक्रेसी की दरारें दिखने लगीं.

अगर हम अपने देश को देखें तो यहां पर जाति की संकल्पना फासिस्ट है. ये कुछ समूहों का आधिपत्य बनाती है, बाकी के अस्तित्व को ही नकारती है. अगर ऊपर के तर्कों के आधार पर देखें तो भारत में डेमोक्रेसी की शुरुआत के बाद पिछड़े वर्गों की भागीदारी धीरे धीरे सुनिश्चित होने लगी. पर एक वक्त के बाद फिर से ऐसा लग रहा है जैसे तथाकथित ऊंची जातियां फिर अपना आधिपत्य स्थापित करने में लग गई हैं. इसके लिए तमाम कुतर्कों का सहारा लिया जाता है. हर उस चीज को डिस्क्रेडिट कर दिया जाएगा जो बराबरी की बात करती है.

फासिस्ट ताकतों की विशेषता होती है कि ये हर वक्त आदर्शों की बात करते रहते हैं पर अपने लक्ष्य को पाने के लिए सारे आदर्शों की आहुति दे देते हैं. आदर्शों की बात करने से हर वक्त एक नैतिक हाई ग्राउंड रहता है, आप श्रेष्ठता श्रेणी में ऊपर रहते हैं. पर बीच में मौका देखकर सारे आदर्शों को दरकिनार कर अपना लक्ष्य हासिल कर लेते हैं. फिर वापस आदर्शों के गुणगान पर आ जाते हैं.

ट्रोलिंग फासिज्म का लक्षण है

ट्रोलिंग इसी फासिस्ट मानसिकता का एक लक्षण है. अगर आप ट्रोलिंग को ध्यान से देखें तो ये ऊपरी जातियों का ही टूल है. क्योंकि इनके पास शब्द हैं, कल्चरल कैपिटल है और किसी को कुछ भी कह देने की बेशर्मी है. ट्रोलिंग का इस्तेमाल कर ये लोग जातिगत, स्त्रीद्वेषी, धर्मद्वेषी और हिंसात्मक बातें आसानी से कह जाते हैं. जिस सोशल मीडिया से पिछड़ी जातियां सशक्त हो रही हैं, उसी मीडिया का इस्तेमाल कर ऊपरी जातियां उन्हें डिस्क्रेडिट करती हैं. जैसे कि पिछड़ी जातियों के ज्ञान को लेकर, उनकी स्पेलिंग को लेकर, उनके रूप रंग चरित्र इत्यादि को लेकर उन पर लगातार प्रहार करती हैं. ऐसी इमेज बनाती हैं जैसे कि वो कोई बुरा मनुष्य हो. इस दौरान वो हर उन बातों का सहारा लेते हैं जो आम जनजीवन में कहने से हिचकते हैं. पिछले पचास साठ सालों में एक बदलाव आ रहा था जिसमें पिछड़ी जातियों के मुंह पर ये बात कहने की हिम्मत नहीं हो रही थी किसी की. पर अब सोशल मीडिया के माध्यम से वो सारी बातें कही जा रही हैं.

इसका काम करने का तरीका बहुत ही भयावह है. चूंकि ये मानसिकता होती है या यूं कहें कि फासिज्म एक मानसिक बीमारी है तो भी सही है. इस मानसिक बीमारी में ये समूह सिर्फ दूसरे समूह को प्रताड़ित ही नहीं करता, जरूरत पड़ने पर अपने समूह के कुछ लोगों का बलिदान देने में भी नहीं हिचकता. क्योंकि इसके लिए व्यक्ति महत्वपूर्ण नहीं है, इसके लिए डॉमिनेशन महत्वपूर्ण है.

इसका सबसे बड़ा उदाहरण सुशांत सिंह राजपूत का केस है. सुशांत की बहुत सारी फिल्में चलीं और बहुत सारी नहीं चलीं. वो एक राइजिंग स्टार थे और खुद को किसी आइडेंटिटी से नहीं जोड़ते थे. ना तो उन्होंने कभी खुद को प्राउड बिहारी जैसे विशेषण दिये ना ही प्राउड राजपूत से जोड़ा. सुशांत ने दो साल पहले राजपूती प्राइड को लेकर चले अभियान के दौरान अपने नाम से राजपूत हटा दिया था. इसके लिए उन्हें बहुत गाली खानी पड़ी. यहां पर ये चीज नोटिस करने लायक है. उस वक्त पर कथित ऊंची जातियां सुशांत को त्यागने पर आमादा थीं. क्योंकि उनकी राह में वो रोड़ा बन रहे थे. राजपूती अभियान की गाड़ी के चक्कों में वो पैना फेंक रहे थे. उस वक्त उनको बुरी तरह ट्रोल किया गया.

दो साल बाद उनकी असामयिक मौत हुई. उनकी मौत के तुरंत बाद कुछ लोगों ने एक विकृत मानसिकता के तहत खुशी जताई और कहा कि इसने तो राजपूत शब्द अपने नाम से हटा दिया था. तब तक उस एजेंडे को बल मिल रहा था जो दो साल पहले चलाया गया था. पर अचानक अहसास हुआ कि इस दुखद घटना का इस्तेमाल कर किसी वृहद एजेंडे को पूरा किया जा सकता है. इसके बाद अचानक बॉलीवुड के कई बड़े एक्टरों को सुशांत की मौत का जिम्मेदार बना दिया गया. इसको लेकर नये किस्म की ट्रोलिंग हुई. इसमें वो सारी बातें कही गईं जो उन एक्टर्स के सामने कहने की कोई भी हिम्मत नहीं कर सकता था. नेपोटिज्म से लेकर दूसरों द्वारा बुली किया जाना, हर बात पर ट्रोलिंग हुई. ऐसा कहा गया कि इन एक्टर्स ने सुशांत को डिप्रेशन में ला दिया. ध्यान रहे कि इस ट्रोलिंग का ना तो सुशांत से लेना देना था ना ही उन एक्टर्स से. बल्कि इसका उद्देश्य था समाज में अपना डॉमिनेन्स दिखाना. क्योंकि मौत की जांच तो कानूनी तरीके से ही हो सकती है.

यहां पर फासिस्ट मानसिकता को समझना होगा. इस केस को आधार बनाकर इतने नये चक्रव्यूह रच दिये गये कि सच और झूठ का पता लगाना मुश्किल हो गया. फिर एक दिन अचानक पता चला कि सुशांत की गर्लफ्रेंड रिया का नाम आ रहा है. अब ट्रोलिंग बिल्कुल ही अलग दिशा में मुड़ गई. जांच एजेंसियां अपना काम कर रही हैं. लेकिन एक ऑर्गेनाइज्ड ट्रोलिंग अलग एजेंडे के तहत काम कर रही है. अब जांच जैसे होगी, जो नतीजे आएंगे, वो आएंगे. इसमें फाइनेंशियल फ्रॉड हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है. क्या नतीजा आएगा वो आनेवाले वक्त की बात है. उनकी मौत का दुख सबको है, हर कोई सच जानना चाहता है. पर उसे लेकर जो ऑर्गेनाइज्ड ट्रोलिंग हुई उसने बाकी सारे मुद्दों को गौण कर दिया.

एक नया सेंटिमेंट चल पड़ा कि ऊपरी जातियों का इस देश में रहना मुश्किल हो गया है. पिछड़ी जातियों के इतने अधिकार हैं, आप सवर्णों के अधिकारों के बारे में एक बात नहीं बोल सकते. इस एजेंडे को लगातार फैलाया गया. धीरे धीरे इस केस को ऐसे मोड़ पर ला दिया गया कि जो कोई भी इसमें एक तार्किक बात बोलेगा, वो एक फेमस एक्टर की हत्या में शामिल बताया जाएगा. उसके बारे में कहा जाएगा कि उसने हत्यारों से पैसे लिए हैं. ध्यान देने की बात यह है कि ये तो परिवार भी नहीं कह रहा. दो लड़कियों के बारे में लोग ऐसी ऐसी बातें कह रहे हैं, लिख रहे हैं जिनको सामान्य समाज में अनुमति नहीं मिलती. इस चीज में इनका साथ वो लोग भी दे रहे हैं जो इन्हीं बातों के खिलाफ लड़ते थे. जैसे कि ढेर सारे लोग मिलकर उन लड़कियों का चरित्रहनन कर रहे हैं. इसमें प्रोफेशनल चरित्रहनन करने वाले और प्रोफेशनल क्रांतिकारी दोनों ही शामिल हैं.

आप इसमें ध्यान देंगे तो पाएंगे कि ये पूरी ट्रोलिंग ही किसी और एजेंडे के लिए है. इसका सुशांत से कोई लेना देना ही नहीं है. अगर किसी ने उस एजेंडे के खिलाफ बोला तो ये उसके दुश्मन बन जाएंगे. फिर वही फासिस्ट तरीका अपनाएंगे- डिस्क्रेडिट करने का. ताकि उस व्यक्ति की आवाज की कोई वैल्यू ही ना रहे. वैसी बातें कहेंगे जो कहने से लोग कतराते हैं.

इस थ्योरी को बल इसलिए भी मिलता है कि सुशांत की मौत के कुछ दिन बाद उनकी बहन की भी ट्रोलिंग होने लगी थी. क्योंकि उन्होंने अपने बच्चे का एक वीडियो बनाकर सुशांत को अलविदा कहा था और फैन्स को भी मूव ऑन करने को कहा था. तो उनको भी बुरा भला कहा जाने लगा. जैसा कि हमने ऊपर भी डिस्कस किया था कि फासिस्ट ताकतें अपने लक्ष्य के लिए किसी का भी चढ़ावा चढ़ा सकती हैं. अगर आप उनके मन की बात ना करें तो आप ही हत्यारे साबित हो जाएंगे, आपका चरित्र खराब हो जाएगा, आपका काम खराब हो जाएगा.

इसका सबसे बुरा प्रभाव पड़ता है स्विंग फासिस्ट्स पर. जैसे कि स्विंग वोटर्स होते हैं जो मतदान के दिन अपना वोट डिसाइड करते हैं, वैसे ही स्विंग फासिस्ट होते हैं. वो ट्रोलिंग के दिन अपना पक्ष डिसाइड करते हैं और लोगों को ट्रोल करते हैं. ये स्वयंसेवी होते हैं, बस इनकी भावनाएं भड़काई जाती हैं. इन्हें लगता है कि यही सही है. फिर वो लोग ऐसी बातें कह जाते हैं या कर जाते हैं जिनका वास्तविकता या सामान्य चीजों से कोई लेना देना नहीं होता. इन्हें फासिज्म का जॉम्बी भी कह सकते हैं. जब तक सुशांत की मौत की जांच पूरी होगी तब तक ना जाने कितने संस्थान, ना जाने कितने लोग डिस्क्रेडिट किये जा चुके होंगे.

इसके साथ ही ऐसी बातें स्थायी हो जाएंगी जो कहने में लोग हिचकते थे. जैसे कि सवर्णों को न्याय नहीं मिलता, सब कुछ तो पिछड़ों के लिए हैं. मुस्लिम एक्टर्स के सामने हिंदू एक्टर्स को झुकना पड़ता है. औरतें गोल्ड डिगर होती हैं. फलाने ने तो पैसा खाया. फलाने ने ऐसा किया. अगर आप ध्यान देंगे तो ऐसी बहुत सी बातें अपना स्पेस पकड़ती जाएंगी. केस का जो होगा, वो होगा. पर फासिज्म अपना काम करेगा. उसको केस से कोई लेना देना नहीं. इस केस के बहाने वो अपने नये सिपहसालार बना लेगा.

इसीलिए कोड ऑफ कन्डक्ट बनाये गये थे. ताकि समाज का फासिज्म उस पर हावी ना हो जाए. लेकिन सोशल मीडिया आने के बाद फासिज्म को एक नया स्पेस मिल गया है. स्वयंसेवी फासिज्म एक्टिव है. यही सबसे खतरनाक होता है. नेता और राजनीति तो बदलते रहते हैं. स्वयंसेवी फासिज्म ने अगर एक बार दिमाग में कब्जा कर लिया तो बरसों लग जाते हैं मुक्ति पाने में. क्योंकि सारी जिम्मेदारी तो नेताओं पर डाल दी जाती है. समाज अपने फासिज्म के लिए नेताओं को दोषी ठहरा देता है. फिर बाद में कोई नेता ही आता है जो समाज के फासिज्म को रोकता है और सही दिशा में ले जाता है. वो शांति का स्वर्णयुग होता है.

 

इंसान आत्महत्या क्यों करता है?

डिस्क्लेमर: ये कोई एक्सपर्ट जानकारी नहीं है. मुझे कोई मेडिकल नॉलेज नहीं है. ये मानव मन के भावों को समझने की कोशिश है. विशेषकर बाइपोलर डिसऑर्डर को. अपने मन और अपनी जान पहचान के लोगों के मन की बातें सुनकर-समझकर. मन में नकारात्मक, सुसाइडल ख्याल आते ही मनोचिकित्सक से मिलें. उसके अलावा कोई और मदद नहीं कर सकता. उसकी सलाह के बाद ही फैमिली और दोस्त ठीक से मदद कर पाएंगे. वरना अपने तरीके से ये इलाज करें तो और ज्यादा इरिटेट कर देंगे.

आप जिस रास्ते पर जा रहे हैं, उस पर पानी भरा है. पानी आपके होठों तक आ रहा है, नाक को नहीं छू पा रहा. आप थोड़ी सावधानी से जा रहे हैं और चलते जा रहे हैं. बोलने का मन करता है या गाने का मन करता है तो आप ठोड़ी थोड़ी ऊपर कर के मंशा पूरी कर लेते हैं. लेकिन अचानक आपको अहसास होता है कि आपके पैरों के नीचे काई है. आप और संभलकर चलना शुरू करते हैं. पर कुछ देर बाद पैर का धरातल से संपर्क टूटने लगता है. आप पैर रखना चाहते हैं, पर नहीं रख पाते. चिल्लाना चाहते हैं, पर पानी आपके मुंह में आ जाता है. थकान की वजह से जोर से सांस लेना चाहते हैं, पर पानी नाक में चला जाता है. आपकी जान निकलनेवाली होती है कि अचानक पैर के नीचे समतल मैदान मिल जाता है और आप आराम से चलने लगते हैं. जान में जान आती है. आपको लगता है कि बेवजह परेशान हो रहे थे, थोड़ा सा पैर ऐसे रखते तो आराम से निकल सकते थे. देखो तो कितना सुंदर दृश्य है और मैं कितना ठाट से किसी राजकुमार की तरह अकेले विचरण कर रहा हूं. विष्णु के बाद मुझे ही मौका मिला है क्षीरसागर में रहने का. पर अपने मन में ये पता रहता है कि रास्ता भले ही सुगम और मजेदार हो गया हो, पानी तो नाक और होठों के बीच है ही.

कल्पना करें कि इसी रस्ते पर आपको एक दोस्त मिल जाता है जिसके जूतों में कीलें लगी हों और हाथ कुछ ऐसे हों कि उसको पकड़ते ही पानी साफ हो जाता हो. साफ चिकना रास्ता. थोड़ी दूर पर खूबसूरत पानी का झरना. हल्की धूप और दूर दिखते हरे भरे पेड़. इसके बाद दोस्त का खिलंदड़ अंदाज. कितनी खूबसूरत होगी वो यात्रा! आप इसे खत्म नहीं करना चाहेंगे. अमर होना चाहेंगे ताकि इसका आनंद उठा सकें. उस दुख की भी इसमें भरपाई कर सकें जिसे आपने अकेले चलते हुए महसूस किया है. भर भर के नथुनों से सांस लें, जी भर के गायें, दौड़ें. पर मन में हमेशा यही ख्याल रहेगा कि कहीं दोस्त का हाथ ना छूट जाए. हाथ छूटते ही आप वापस उसी काई वाले रास्ते पर आ जाते हैं.

एक पल में इतनी ऊर्जा महसूस होती है कि आपको लगता है आप चंद्रमा पर जा सकते हैं. दस दिन में क्वांटम फिजिक्स पढ़ सकते हैं, नये तारों की खोज कर सकते हैं. एक साधारण मनुष्य जो नाचता-गाता है, हंसी मजाक करता है, वो आपको तुच्छ महसूस होता है. लगता है कि उसके जीवन का अस्तित्व ही क्या है. आपने जीवन में किया ही क्या अगर कोडिंग नहीं सीखी, स्पेस जंप नहीं किया, मैथ नहीं सीखा, फिलॉसफी नहीं पढ़ी, अत्याधुनिक विज्ञान को नहीं समझा. पर अगले ही पल इतना अंधकार महसूस होता है कि आप खुद को तुच्छ मानने लगते हैं. एक अपराधी मानने लगते हैं. आपके मन का चोर डाकू-हत्यारा बनकर आपके ऊपर हावी हो जाता है. अपनी छोटी से छोटी गलती आपके लिए बहुत बड़ा क्राइम बन जाती है. क्योंकि कुछ देर पहले आप अपनी नजरों में इतने महान थे कि साधारण मनुष्य की तरह गलती कैसे कर सकते हैं.

आप किसी लड़की से बात करने जाते हैं, आपकी भाषा और आपके विचार किसी फिलॉसफी से घूमकर आते हैं. वो मानव सभ्यता की हजारों सालों की फिलॉसफी से ट्रेवल करते हुए आज की भाषा में उस लड़की तक पहुंचते हैं. आपका उद्देश्य है सिर्फ अपने दिमाग से खेलना और उससे बात कर के आनंदित होना. संभवतः उस लड़की में आप एक कम्पेनियन खोज रहे होते हैं जो मस्तिष्क की अनंत जिज्ञासा में पार्टिसिपेट करे. कम से कम उसे स्वीकार करे. लेकिन उस लड़की को ये भाषा, ये बात बहुत क्रीपी लगती है, वो डर जाती है कि ये इंसान क्या बोल रहा है. अभी कुछ देर पहले तक तो ये जेंटलमैन था, अभी अचानक से ऐसा क्यों बोल रहा है. क्या इसके मन में कोई खोट है? वो आतंकित हो जाती है. आपको अहसास होता है कि आपने कुछ शब्द ऐसे चुने जिनका आपकी नजर में मतलब कुछ और था. पर उसके लिए कुछ और है. आप दस सफाईयां देते हैं. वो मान जाती है या फिर नहीं मानती है और किनारे हो जाती है. लेकिन आप नहीं मानते. अपने मस्तिष्क में आप हजारों बार उस बात को प्ले करते हैं. करते रहते हैं और रुकते नहीं है. ना उसे माफ कर पाते हैं ना खुद को. अपनी महानता में आप दब जाते हैं. ये नहीं समझ पाते कि एक साधारण इंसान बोलने-हंसने में चूक कर सकता है. इस चूक को मानने में कोई बुराई नहीं. पर यूनिवर्स की यात्रा कर आया मस्तिष्क ये मानने को तैयार नहीं होता.

फिर आप खुद को एक साधारण खिलंदड़ मानव बनाना चाहते हैं. आप दिखाते हैं कि आपसे ज्यादा फ्लर्टेशस कोई है नहीं. आपको नहीं पता कि आप क्या करने जा रहे हैं. इसका क्या हासिल होगा. पर अपने मस्तिष्क को ये दिखाने में जुट जाते हैं कि देखो मैं कितना स्मार्ट, बातूनी हूं जिस पर कोई लड़की पल भर में न्यौछावर हो सकती है. आपको नहीं पता कि आप क्यों कर रहे हैं. अचानक ये खुमार उतरता है और आप फिर से उसी अंधेरे में चले जाते हैं. जहां रोशनी होते ही पानी ही पानी दिखाई देता है. पैरों के नीचे काई आ जाती है. दोस्त मिल जाता है तो ठीक वरना पैर फिसलते रहते हैं. आपके लिए बोलना और सांस लेना भी दुश्वार हो जाता है.

एक हाथ का इंतजार होता है बस. वो हाथ पकड़कर आपको खींच ले तो आप धरती पर आ जाते हैं. बिल्कुल सामान्य इंसान की तरह जीवन जीने लगते हैं. पर वो हाथ हटते ही आप वापस उसी पानी में पहुंच जाते हैं.

इसमें किसी का दोष नहीं होता. आपका हाथ पकड़कर कोई कितनी देर चल सकता है? आपके लिए जीवन जीना ही संघर्ष हो जाएगा. सारी काबिलियत के बावजूद. मां, बाप, परिवार, पत्नी, प्रेमिका, दोस्त सब अपने अपने तरीके से समझना चाहते हैं. कुछ कम समझते हैं, कुछ समझ जाते हैं. पर किसी में वो समझ नहीं होती कि आपको बाहर खींच सके. आपको खुद ही अपना पैटर्न पहचानना होता है. आप उसके साथ जीना सीख भी सकते हैं और नहीं भी सीख सकते हैं.

इसमें सिर्फ एक बात तय होती है. जीवन जीना बहुत मुश्किल हो जाता है.

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