वर्षावास- संताप और खुद के प्रति क्षोभ का कथ्य

वर्षावास बौद्ध धर्म की रीतियों से जुड़ा हुआ है. महात्मा बुद्ध ने यह टाइम पीरियड खुद बनाया था. बरसात के मौसम में तीन महीने यानी आषाढ़ की पूर्णिमा से लेकर अश्विन की पूर्णिमा तक बौद्ध भिक्षुओं को एकांत में रहकर चिंतन मनन करना होता था. क्योंकि बारिश के मौसम में आने जाने में तकलीफ होती थी, कार्य भी ठीक से नहीं होता था. यह वैसा ही है जैसा कि आजकल लोग शीत ऋतु में छुट्टी लेते हैं या ग्रीष्म में भी लेते हैं. पर वर्षावास अपनी तरह की अकेली रीति है. तेरी दो टकिये की नौकरी पर मेरा लाखों का सावन जाए. महात्मा बुद्ध ने बनाया होगा तो कुछ सोचकर ही बनाया होगा.

पर वर्षावास में भिक्षुओं को शील और विनय का आचरण करना होता है. लेकिन अविनाश मिश्र के उपन्यास वर्षावास में शील और विनय दोनों से ही 36 का आंकड़ा है. या 69 का. एक तो यह बौद्धिक ताप का उपन्यास है जो कि दो और दो चार के फॉर्मूले पर नहीं चलता है. दूसरा कि इसमें लेखन और संभोग को समानांतर रखा गया है. संभोग ऐसी क्रिया है नहीं जिससे कोई मुंह चुरा सकता है. बल्कि इंसान की सारी नीड्स पूरी हो जाने के बाद भी यह नीड बनी रहती है. राजाओं ने सब कुछ हासिल कर लेने के बाद इसके लिए युद्ध किये थे. एक आलोचक, एक प्रकाशक, एक लेखक, एक भिक्षु- इनके जीवन में क्या मिसिंग है? पता नहीं. पर इस किताब में बौद्ध भिक्ष जो चीजें करते हैं, उसके लिए महात्मा बुद्ध ने उनको मना किया था. इस किताब का एक पात्र ज्योतिषी भी है पर वह भविष्य की बात नहीं करता, वह पूरे वक्त अपने भूतकाल की घटनाओं को याद करते रहता है.

किताब की शुरुआत में लिखा गया है- सबका मंगल हो. इसके बाद लिखा गया है- वो जो इश्क के खंजर से हलाक होते हैं, उन्हें ग़ैब से हमेशा एक नई जिंदगी मिलती है. पर महात्मा बुद्ध तो रियलिस्ट थे, ग़ैब से क्या लेना देना? ग़ैब यानी कोई अदृश्य ताकत. प्रकृति, अल्लाह या कुछ और. जिन्न, भूत प्रेत शायद. या विदेशी हाथ. या हमारा अंतस. या हमारा छुपा हुआ प्यार. या हिंसा. या काला धन.

तो यह पता चलता है कि अविनाश का उपन्यास स्टेटस कुओ के खिलाफ विद्रोह करता है. ऐसा कहना बड़ा अच्छा लगेगा पर वास्तव में इस उपन्यास में जीवन के बारे में बात की गई है. जीवन हर युग में यथास्थिति में ही रहता है. जो काम महात्मा बुद्ध ने किया, वो हम भी कर सकते हैं. जो आरोप उन पर लगे, वो हम पर भी लग सकते हैं. सबके जीवन में वही घटनाएं होती हैं. ज्योतिषी का अपने भूतकाल के बारे में बात करना बताता है कि उसके जीवन में कुछ तो घटित हुआ है जिससे वो खुद उबर नहीं पा रहा. तो इस किताब में यथास्थिति का ही वर्णन है, पर वास्तव स्थिति का, जो कि पात्र महसूस करते हैं.

इस उपन्यास में ढेर सारे पात्र हैं जो अपनी कहानी कहते हैं. किताब, लेखक, प्रूफरीडर, आलोचक, लाइब्रेरियन, संपादक, ज्योतिषी, कवि, लेखिका, भिक्षु, अमीन इत्यादि. पर कई बार वो कहानी नहीं, विचार कहते हैं जिनसे आपको उनकी कहानी खुद समझनी है. वह नहीं बताते कि उन्होंने कैसे कपड़े पहने हैं, आपको अनुमान लगाना है कि उनके कपड़े कैसे होंगे. यह भी नहीं पता चलता कि वो कैसे दिखते हैं. आपको उनकी मनःस्थिति से अनुमान लगाना है कि वो कैसे दिखते होंगे. इस उपन्यास में पात्र सिर्फ अपने मन की बातें बोलते हैं. पर उनके वाक्य निर्विकार भाव से बोले हुए हैं. या तो गहरे संताप के बाद या क्षोभ के बाद या फिर विरक्ति के बाद. चूंकि इसके मूल में महात्मा बुद्ध हैं तो यह बातें माकूल मालूम पड़ती हैं. इसकी सबसे कठिन बात यह है कि इसमें आपको अपनी भावनाएं खर्च करनी हैं. अपनी तरफ से.

इस उपन्यास में एक आलोचक है जो अपनी कहानी की शुरुआत में एक कन्या के नमस्कार का वर्णन करता है. फिर अंत तक पहुंचते पहुंचते वह एक नवोदित लेखिका के साथ संभोगरत होता है, कुएं की जगत पर. मगर क्यों? क्या आलोचना का दबाव आपको हरम बनाने की ताकत देता है? यह आलोचक अपने आखिरी वक्तव्य में कहता है- ‘मैं जानता हूं: जब स्त्री छोड़कर जाती है, तब कैसा लगता है. लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि हम उसकी हत्या कर दें’. पूरे उपन्यास में आलोचक एक व्यथित जीवन जी रहा होता है. पर वह सिर्फ आलोचक नहीं है, वह एक इंसान है. पर उसका जीवन क्या है?

जीवन क्या है? क्या लेखन, लेखक या कोई किताब किसी जीवन से बड़ी है? कदापि नहीं. एक जीवन में इतनी चीजें होती हैं जिनसे समस्त विश्व का लेखन किया जा सकता है. तो उपन्यास किस चीज के बारे में होता है? जीवन के बारे में? पता नहीं. पर यह पता है कि उपन्यास में कहानी नहीं, कथ्य महत्वपूर्ण होता है. वर्षावास में कथ्य बहुत मजबूत है.

जब आप वर्षावास के पात्रों पर ध्यान देते हैं तो वो अपने जीवन के सिर्फ एक पहलू के बारे में बात कर रहे होते हैं. ऐसा लगता है कि यह उपन्यास एक किताब के प्रकाशन तक महदूद है. पर क्या किताब का लिखा जाना और उसका प्रकाशन जीवन जीने की तरह नहीं है? इस जीवन को जीने में भाषा का बहुत बड़ा रोल है. उपन्यास में एक जगह लिखा गया है-

मैं क्या था?

मेरे पास क्या था?

मुझे क्या आता था?

इन तीनों सवालों का एक ही जवाब है- भाषा.

तो जब किताब के लिखे जाने और उसके प्रकाशन को हम जीवन को जिये जाने की तरह देखते हैं तो पात्रों की बातों की गंभीरता समझ आती है. जैसे इसमें मां की कहानी अलग अलग तरीकों से, अलग अलग पात्रों के मुंह से अलग अलग जगहों पर आती है. अगर इस किताब का नाम ‘मां’ भी होता तो आश्चर्य नहीं होता. मां को लेकर कई जगह जो बातें लिखी गई हैं, वो जनसामान्य को उद्वेलित करने वाली बातें हैं. इसी तरह भिक्षुणियों के कथानक में जीवन के उस पहलू का जिक्र है, जो बातचीत में क्या, विचार में भी नहीं आता है. पर जो पात्र इन बातों को बोल रहे होते हैं, वो अनाम हैं, निर्गुण चित्रण है उनका, रूप रंग, स्वाद, सुगंध से विहीन. उनके पास बस एक चीज है- भाषा. अब वह कितना झूठ बोल रहे हैं, कितना सच- हमें नहीं पता.

यह उपन्यास पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि जैसे कोई मधुशाला पूरी तरह मधुमय होकर खुद मधु होने का अभिनय कर रही हो पर उसे पता है कि वो कितनी गंभीर बातें कर रही है. इसमें सलाह नहीं है, समाधान नहीं है, समस्या का भी जिक्र नहीं है- बस जीवन की विसंगतियों का जिक्र है.

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