तितली: कश्मीर से लेकर कोपेनहेगन तक मृत्यु की कहानी

मृत्यु हमें कैसे प्रभावित करती है? हम अपनी मृत्यु से डरते हैं या किसी और की मृत्यु से उपजे भय से? किसी और की मृत्यु से हम भयग्रस्त हो जाते हैं या दुखी होते हैं? फिर क्या हमें अपनी मृत्यु से डर लगने लगता है? मृत्यु डर लाती है या दुख?

लेकिन अगर हम कभी ना मरें तो हमारी सबसे बड़ी इच्छा क्या होगी? शायद यही कि हम मर जाएं. शायद तब हम प्रयास करेंगे कि किसी तरह हमारी मौत हो, उसके लिए रिसर्च करेंगे. पर अभी तो हमें पता है कि एक दिन मर जाना है. हमारे मरने से हमारे सारे दर्द मिट जाते हैं. पर किसी और के मरने से, हमारे करीबियों के मरने से हमारा दर्द बढ़ जाता है, हम खुद मरना नहीं चाहते पर हमारा जीवन मुश्किल हो जाता है. पर अगर हम कभी ना मरें और हमारे करीबी मर जाएं तो हमारा जीवन कैसा होगा? अश्वत्थामा की तरह? किसी लेखक के लिए मृत्यु क्यों आकर्षण पैदा करती है, यह दुख है या सिर्फ एक जिज्ञासा है?

मानव कौल का नया उपन्यास ‘तितली’ आया है जो मृत्यु के बारे में है. मानव ने डेनमार्क की एक लेखिका नाया का एक उपन्यास पढ़ा था जिसमें नाया अपने बेटे की मृत्यु के बारे में लिखती हैं. इस उपन्यास ने मानव को इस कदर अपने आगोश में लिया कि उन्होंने नाया से मिलने का मन बना लिया. इस बीच उन्हें एक सपना भी आया जिसमें वो नाया से मिलते हैं. इसके बाद उन्होंने नाया को एक ईमेल कर दिया. उन्हें उम्मीद नहीं थी कि नाया की तरफ से जवाब आएगा. मानव ने इस उपन्यास में इस ईमेल और उसके जवाब की प्रतीक्षा का बड़ी ईमानदारी से वर्णन किया है. उन्हों एक फैनब्वाय की तरह नाया को ईमेल किया था. चूंकि नाया की तरफ से मानव को जवाब नहीं आया है इसलिए मानव ने भी अपनी एक फैन के मैसेज का जवाब नहीं दिया. हिसाब बराबर.

मानव के लेखन में यह सहजता, यह आत्मस्वीकृति और अपने मन की बातों को बड़ी सावधानी से पन्ने पर उतार देने की कला मुझे बहुत सुंदर लगती है. एक जगह वह लिखते भी हैं कि जो बातें वो खुद महसूस करते हैं, जिस तीव्रता से, उस तीव्रता से पन्ने पर नहीं उतार पाते. इस बात से डेनमार्क की लेखिका नाया भी इत्तेफाक रखती हैं.

तो अंततः मानव को नाया का जवाब आता है और वो मिलने के लिए उन्हें डेनमार्क बुलाती हैं. फिर मानव ने अपनी फैन शायरा को भी जवाब दिया है और उनको भी मिलने के लिए लैंडूर बुलाया है. यह बड़ी सुंदर बात है कि वाकई मानव ने दो महीने का वक्त लेकर डेनमार्क का टूर किया और नाया से मिल के आए. पूरी किताब पढ़ते हुए कहीं पता नहीं चलता कि वो एक एक्टर हैं, वो सिर्फ लेखक हैं इस मायने में.

प्रथम दृष्टया यह किताब नाया के बेटे कार्ल की मौत से उपजे दुख के बारे में लगती है. उपन्यास का टाइटल भी नाया और कार्ल के जीवन से ही जुड़ा है. पर जब आप दुबारा निगाह डालते हैं तो यह किताब शायर के बारे में भी उतनी ही है. आधी किताब में शायर के मानव से मिलने का जिक्र है. बाकी आधी में नाया से मिलने का. दोनों ही औरतों से लेखक मृत्यु के बारे में बात करता है. दोनों से मिलते हुए लेखक मौजूद नहीं लगता, ऐसा लगता है कि लेखक का प्रेत है वहां पर.

लेखक सिनेमा और थिएटर से हैं तो एक्ट चेंज करने का लोभ संवरण नहीं कर पाते. पहाड़ और कैफेज के बीच चल रही कहानी में मानव ट्विस्ट लाते हैं. अपने मित्र क्लाउस के द्वारा. क्लाउस एक बेहतरीन, कॉम्प्लेक्स कैरेक्टर है जिससे आप मिलना चाहते हैं. अपनी जटिलताओं के बावजूद वह अपने दोस्तों से, अपने जानने वालों से बड़ा प्रेम करता है. उस व्यक्ति का जीवन जीने का तरीका हर वक्त मृत्यु के करीब लगता है. हालांकि यह कहना क्रूर होगा पर जिस तरीके से कहानी में क्लाउस जा रहा है, लगता है कि वो अंत तक मर जाएगा. पर ऐसा नहीं होता है और मैं उनके लंबे जीवन की कामना कर रहा हूं.

उपन्यास का मूल भाव कथ्य का होता है. लैंडूर और कोपेनहेगन की अपनी यात्रा में लेखक ने कथ्य को प्राथमिकता दी है. कई जगहों के लोगों की भावनाओं का इसमें विस्तार है. चाहे वो लैंडूर में एक टैक्सी वाला हो, एक बूढ़ी औरत हो खाना खिलाने वाली, या रस्किन बॉन्ड से मिलना हो या फिर डेनमार्क में लेखक को एक अनाम मैसेज का आना हो जो नाया को कुरेदने से उन्हें रोकता हो- यह सारी बातें जीवन के कथ्य को विस्तारित करती हैं.

शुरुआत में ही मानव ने अपनी रचनात्मकता को अपने मन के अंदर एक काल्पनिक तालाब से जोड़ा है. अंत आते आते नाया उनसे कहती हैं कि कई बार प्रतिभा समंदर की एक बड़ी मछली की तरह होती है जो एक तालाब में नहीं आ सकती, उसे तहस नहस कर देती है. यह वर्णन मुझे बड़ा सुंदर लगा. यह रिश्तों में भी लागू होता है. शायद नाया रिश्तों के बारे में ही बोल रही थीं. वास्तव में वह क्लाउस और उनकी प्रेमिका के बारे में बोल रही थीं.

यह भी एक सुंदर बात थी कि एक छोटे देश में एक शहर में लोग कैसे एक दूसरे को जानते हैं और उनकी भावनाओं की इज्जत करते हैं. मैं यह सोच रहा था कि क्या अपने यहां कोई मां अपने बेटे की मौत को लेकर इस तरीके से खुद को एक्सप्रेस कर सकती है?

मेरी मां मेरे से बड़े एक बेटे की मौत को लेकर पैंतीस साल बाद भी उसी तरीके से बात करती है जैसे कि कल की ही घटना हो. आज भी जब वह तारीख आती है तो वह उद्वेलित हो जाती है. उस बेटे को और कोई याद नहीं करता, इस संसार में किसी को नहीं पता कि वो धरती पर आया था. पर उसकी मां को पता है. जब भी मां उस बारे में बात करती है, मैं थोड़े से ज्यादा नहीं सुन पाता और बात बदल देता हूं. पर शायद अब लगता है कि एक बार तो पूरा सुनना ही पड़ेगा. मौत के बारे में सुनने के लिए मानव कोपेनहेगन तक चले गये. मैं अपने घर तक तो जा ही सकता हूं.

वर्षावास- संताप और खुद के प्रति क्षोभ का कथ्य

वर्षावास बौद्ध धर्म की रीतियों से जुड़ा हुआ है. महात्मा बुद्ध ने यह टाइम पीरियड खुद बनाया था. बरसात के मौसम में तीन महीने यानी आषाढ़ की पूर्णिमा से लेकर अश्विन की पूर्णिमा तक बौद्ध भिक्षुओं को एकांत में रहकर चिंतन मनन करना होता था. क्योंकि बारिश के मौसम में आने जाने में तकलीफ होती थी, कार्य भी ठीक से नहीं होता था. यह वैसा ही है जैसा कि आजकल लोग शीत ऋतु में छुट्टी लेते हैं या ग्रीष्म में भी लेते हैं. पर वर्षावास अपनी तरह की अकेली रीति है. तेरी दो टकिये की नौकरी पर मेरा लाखों का सावन जाए. महात्मा बुद्ध ने बनाया होगा तो कुछ सोचकर ही बनाया होगा.

पर वर्षावास में भिक्षुओं को शील और विनय का आचरण करना होता है. लेकिन अविनाश मिश्र के उपन्यास वर्षावास में शील और विनय दोनों से ही 36 का आंकड़ा है. या 69 का. एक तो यह बौद्धिक ताप का उपन्यास है जो कि दो और दो चार के फॉर्मूले पर नहीं चलता है. दूसरा कि इसमें लेखन और संभोग को समानांतर रखा गया है. संभोग ऐसी क्रिया है नहीं जिससे कोई मुंह चुरा सकता है. बल्कि इंसान की सारी नीड्स पूरी हो जाने के बाद भी यह नीड बनी रहती है. राजाओं ने सब कुछ हासिल कर लेने के बाद इसके लिए युद्ध किये थे. एक आलोचक, एक प्रकाशक, एक लेखक, एक भिक्षु- इनके जीवन में क्या मिसिंग है? पता नहीं. पर इस किताब में बौद्ध भिक्ष जो चीजें करते हैं, उसके लिए महात्मा बुद्ध ने उनको मना किया था. इस किताब का एक पात्र ज्योतिषी भी है पर वह भविष्य की बात नहीं करता, वह पूरे वक्त अपने भूतकाल की घटनाओं को याद करते रहता है.

किताब की शुरुआत में लिखा गया है- सबका मंगल हो. इसके बाद लिखा गया है- वो जो इश्क के खंजर से हलाक होते हैं, उन्हें ग़ैब से हमेशा एक नई जिंदगी मिलती है. पर महात्मा बुद्ध तो रियलिस्ट थे, ग़ैब से क्या लेना देना? ग़ैब यानी कोई अदृश्य ताकत. प्रकृति, अल्लाह या कुछ और. जिन्न, भूत प्रेत शायद. या विदेशी हाथ. या हमारा अंतस. या हमारा छुपा हुआ प्यार. या हिंसा. या काला धन.

तो यह पता चलता है कि अविनाश का उपन्यास स्टेटस कुओ के खिलाफ विद्रोह करता है. ऐसा कहना बड़ा अच्छा लगेगा पर वास्तव में इस उपन्यास में जीवन के बारे में बात की गई है. जीवन हर युग में यथास्थिति में ही रहता है. जो काम महात्मा बुद्ध ने किया, वो हम भी कर सकते हैं. जो आरोप उन पर लगे, वो हम पर भी लग सकते हैं. सबके जीवन में वही घटनाएं होती हैं. ज्योतिषी का अपने भूतकाल के बारे में बात करना बताता है कि उसके जीवन में कुछ तो घटित हुआ है जिससे वो खुद उबर नहीं पा रहा. तो इस किताब में यथास्थिति का ही वर्णन है, पर वास्तव स्थिति का, जो कि पात्र महसूस करते हैं.

इस उपन्यास में ढेर सारे पात्र हैं जो अपनी कहानी कहते हैं. किताब, लेखक, प्रूफरीडर, आलोचक, लाइब्रेरियन, संपादक, ज्योतिषी, कवि, लेखिका, भिक्षु, अमीन इत्यादि. पर कई बार वो कहानी नहीं, विचार कहते हैं जिनसे आपको उनकी कहानी खुद समझनी है. वह नहीं बताते कि उन्होंने कैसे कपड़े पहने हैं, आपको अनुमान लगाना है कि उनके कपड़े कैसे होंगे. यह भी नहीं पता चलता कि वो कैसे दिखते हैं. आपको उनकी मनःस्थिति से अनुमान लगाना है कि वो कैसे दिखते होंगे. इस उपन्यास में पात्र सिर्फ अपने मन की बातें बोलते हैं. पर उनके वाक्य निर्विकार भाव से बोले हुए हैं. या तो गहरे संताप के बाद या क्षोभ के बाद या फिर विरक्ति के बाद. चूंकि इसके मूल में महात्मा बुद्ध हैं तो यह बातें माकूल मालूम पड़ती हैं. इसकी सबसे कठिन बात यह है कि इसमें आपको अपनी भावनाएं खर्च करनी हैं. अपनी तरफ से.

इस उपन्यास में एक आलोचक है जो अपनी कहानी की शुरुआत में एक कन्या के नमस्कार का वर्णन करता है. फिर अंत तक पहुंचते पहुंचते वह एक नवोदित लेखिका के साथ संभोगरत होता है, कुएं की जगत पर. मगर क्यों? क्या आलोचना का दबाव आपको हरम बनाने की ताकत देता है? यह आलोचक अपने आखिरी वक्तव्य में कहता है- ‘मैं जानता हूं: जब स्त्री छोड़कर जाती है, तब कैसा लगता है. लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि हम उसकी हत्या कर दें’. पूरे उपन्यास में आलोचक एक व्यथित जीवन जी रहा होता है. पर वह सिर्फ आलोचक नहीं है, वह एक इंसान है. पर उसका जीवन क्या है?

जीवन क्या है? क्या लेखन, लेखक या कोई किताब किसी जीवन से बड़ी है? कदापि नहीं. एक जीवन में इतनी चीजें होती हैं जिनसे समस्त विश्व का लेखन किया जा सकता है. तो उपन्यास किस चीज के बारे में होता है? जीवन के बारे में? पता नहीं. पर यह पता है कि उपन्यास में कहानी नहीं, कथ्य महत्वपूर्ण होता है. वर्षावास में कथ्य बहुत मजबूत है.

जब आप वर्षावास के पात्रों पर ध्यान देते हैं तो वो अपने जीवन के सिर्फ एक पहलू के बारे में बात कर रहे होते हैं. ऐसा लगता है कि यह उपन्यास एक किताब के प्रकाशन तक महदूद है. पर क्या किताब का लिखा जाना और उसका प्रकाशन जीवन जीने की तरह नहीं है? इस जीवन को जीने में भाषा का बहुत बड़ा रोल है. उपन्यास में एक जगह लिखा गया है-

मैं क्या था?

मेरे पास क्या था?

मुझे क्या आता था?

इन तीनों सवालों का एक ही जवाब है- भाषा.

तो जब किताब के लिखे जाने और उसके प्रकाशन को हम जीवन को जिये जाने की तरह देखते हैं तो पात्रों की बातों की गंभीरता समझ आती है. जैसे इसमें मां की कहानी अलग अलग तरीकों से, अलग अलग पात्रों के मुंह से अलग अलग जगहों पर आती है. अगर इस किताब का नाम ‘मां’ भी होता तो आश्चर्य नहीं होता. मां को लेकर कई जगह जो बातें लिखी गई हैं, वो जनसामान्य को उद्वेलित करने वाली बातें हैं. इसी तरह भिक्षुणियों के कथानक में जीवन के उस पहलू का जिक्र है, जो बातचीत में क्या, विचार में भी नहीं आता है. पर जो पात्र इन बातों को बोल रहे होते हैं, वो अनाम हैं, निर्गुण चित्रण है उनका, रूप रंग, स्वाद, सुगंध से विहीन. उनके पास बस एक चीज है- भाषा. अब वह कितना झूठ बोल रहे हैं, कितना सच- हमें नहीं पता.

यह उपन्यास पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि जैसे कोई मधुशाला पूरी तरह मधुमय होकर खुद मधु होने का अभिनय कर रही हो पर उसे पता है कि वो कितनी गंभीर बातें कर रही है. इसमें सलाह नहीं है, समाधान नहीं है, समस्या का भी जिक्र नहीं है- बस जीवन की विसंगतियों का जिक्र है.

खुश रहने की वजहें, जीवन की सार्थकता और फिट होने के असीमित प्रयास

तीस वर्ष पार करने और कई नौकरियों से गुजरने के बाद अहसास हुआ कि खुश होने के लिए किसी लक्ष्य के पूरा होने का इंतजार नहीं किया जा सकता. वास्तविकता यह है कि खुश होने के लिए किसी चीज की आवश्यकता नहीं है. (स्पेस-टाइम की अवधारणा की जगह मैंने आयु और नौकरी का जिक्र किया है.)

जब मैं अपने जीवन में खुश चेहरों को याद करता हूं तो उनकी खुशी के पीछे कोई वजह याद नहीं आती. वो बस खुश चेहरे थे. चाहे दांत फाड़कर हंसने वाले कजिन हों या फिर मेरे गुम हो गये दोस्त हों. या फिर वो लोग हों जिनको मैंने बस स्टैंड पर इंतजार करते हुए देखा था. या फिर किसी टीवी शो या मैच के दौरान उन चेहरों पर कैमरामैन ने फोकस किया था.

मुझे व्यक्तिगत रूप से कभी समझ नहीं आया कि खुश रहने के पीछे क्या वजह हो सकती है. या कोई क्यूं खुश रहे? ऐसा नहीं है कि मैं दुखी रहता हूं, मेरे जानने वालों में से कोई ऐसी बात नहीं कहेगा. मैं ठहाके लगाने वाला व्यक्ति हूं और हर स्थिति में अपना पंच तैयार रखता हूं. पर यह वाह्य खुशी है. मैं अंदरूनी खुशी की वजहों को ढूंढता रहा हूं और पाया है कि ऐसी कोई वजह नहीं है.

यह बात मुझे फिर जीवन की सार्थकता पर लाती है. अगर मैं खुश नहीं हूं तो फिर मैं क्या कर रहा हूं? मेरे जीवन में क्या है? मैं ऐसा क्या कर रहा हूं जिससे मैं अपने जीवन को सार्थक मानूं? क्या जीवन की सार्थकता कुछ करने में ही है? जीवन अपने आप में सार्थक नहीं है? महामारी के दौर में लगातार ऐसी बातें सुनने को मिलती हैं कि जीवित हैं यही बहुत है. हालांकि मुझे ये बातें एस्केपिज्म की ही लगती हैं. जैसे कुछ ना कर पाए मनचाहा तो उसे जीवन से जोड़ लिया. पर अगर इसे सच मानें तो जीवित रहना ही सार्थकता है क्या? अगर है तो उसमें क्या समस्या है? अगर कोई धनी व्यक्ति ऐसा मानता है तो वो किसी ऐसे ही भिखारी से अलग तो नहीं हुआ? अगर अलग नहीं है तो क्या वो व्यक्ति अपनी वेल्थ से जुदा हो सकता है? फिर उसकी सार्थकता किस चीज में है?

मुझे ये समझ आता है कि जीवन की कोई सार्थकता नहीं है. जीवन निरर्थक ही है. जब खुजली हुई, खुजला लिया. जब सहलाना हुआ खुद को, सहला लिया. जब नींद आई, सो गये. जब नींद खुल गई, उठ गये. तब यह भी समझ आता है कि जब किसी फिलॉसफर ने कहा होगा कि सारे मनुष्य बराबर हैं तो क्या उसके मापने का मापदंड यही रहा होगा? क्योंकि अगर जीवन निरर्थक नहीं है तो क्या है? इसकी सार्थकता में सिर्फ अचीवमेंट ही नजर आती हैं. अचीवमेंट माने जिस चीज को समाज अप्रूव करता है. मोटा मोटी वो काम जिससे समाज का भला होता है. मनोरंजन, खोज या फिर कोई भी ऐसा काम जो समाज के काम आता हो. पर इससे किसी का जीवन सार्थक कैसे हुआ?

अगर जीवन निरर्थक है तो फिर मैं फिर अपने समाज में क्या कर रहा हूं? इतना पढ़ा क्यों और नौकरियां क्यों बदलता गया? उसका हासिल क्या हुआ? मुझे तो यही लगा कि हर जगह फिट होने के प्रयास करता रहा और नहीं हो पाया. मुझे खुद ही नहीं लगा कि मैं फिट हो रहा हूं. कुछ दिन प्रयास करने के बाद बाहरी लोगों की नजरों में बिल्कुल रमा हुआ नजर आता था. फिर अचानक खुद ही बेचैनी होने लगती थी और बातें बेबुनियाद एवं निरर्थक हो जातीं. किस हद तक कोई फिट होने की कोशिश करेगा?

अगर फिट नहीं हुआ, जीवन निरर्थक लगा और खुश नहीं हुआ तो वो व्यक्ति करेगा क्या? या तो जीवन उसके लिए समंदर किनारे खड़े होकर लहरों को देखने जैसा हो जाएगा या फिर किसी घने जंगल में रास्ता भूल जाने जैसा होगा. उसका मस्तिष्क उष्ण कटिबंधीय सदाबहार वनों की तरह नहीं हो जाएगा? या फिर अमेजन के वर्षा वनों की तरह? वर्षा वन ज्यादा करीब हैं उस मस्तिष्क के.

कौन सी किताब खरीदें और कौन सी पढ़ें?

चाहे सोशल मीडिया हो या फिर वास्तविक जीवन, दोनों में बहुधा हम इस प्रश्न से रूबरू होते हैं कि कौन सी किताब खरीदें और खरीद भी ली है तो कौन सी पढ़ें. ये बात हिंदी की पुस्तकों के संदर्भ में ज्यादा खुल के सामने आती है. ऐसा प्रतीत होता है कि प्रश्नकर्ता अपने धन और समय दोनों को लेकर बहुत गंभीर और मितव्ययी है. पर आप इसी प्रश्नकर्ता को किसी कॉफी शॉप या किसी सिनेमा या सर्कस या फिर मनोरंजन की किसी ऐसी ही जगह पर बिना हिचकिचाहट किसी जुआरी की तरह पैसे उड़ाते देखेंगे. उस वक्त प्रश्नकर्ता के मन में रत्ती भर भी संशय नहीं रहता है. पर पुस्तकों को लेकर ये संशय क्यों व्याप्त हो जाता है? जबकि हिंदी की पुस्तकें उतनी महंगी भी नहीं हैं.

इसके पीछे है वो आवरण जो हमें बचपन से ओढ़ाया जाता है. ये आवरण होता है शुद्धता और पवित्रता का. हमें ये बताया जाता है कि पुस्तकों में पवित्र ज्ञान दिया होता है, पुस्तकों में लिखी बातें सच्ची होती हैं और हमें उनके प्रति सदैव निष्ठा और श्रद्धा दिखानी चाहिए. हममें से बहुत से व्यक्तियों ने तो पुस्तकों को पैर से छू जाने पर तुरंत दोनों हाथों से प्रणाम करने की कला भी सीखी है. जबकि हमें पता है कि ये कला हमारे किसी काम की नहीं है, इससे हमारा कोई भी उद्देश्य पूरा नहीं होता है. हां, इस कला का इस्तेमाल हम बुक शॉप में करते हैं. सारी किताबें देखते हैं और दोनों हाथों से प्रणाम कर बिना खरीदे चल बनते हैं.

तो पुस्तकों के प्रति इस श्रद्धा की वजह से हमारे मन में वो भाव अंकुरित होकर पेड़ बन जाता है, जिसके वशीभूत होकर हम हर किताब से पवित्र ज्ञान की ही अपेक्षा रखने लगते हैं. हम यह नहीं समझना चाहते कि एक किताब में क्या क्या हो सकता है और क्या एक ही किताब हर कुछ बता सकती है! फिक्शन की बहुत सी किताबों में मनोरंजन हो सकता है. किसी किताब में कोई पात्र अच्छा लग सकता है, किसी में कोई घटना, किसी में पूरा प्लॉट ही अच्छा लगेगा, किसी की भाषा अच्छी लगेगी. कोई कोई पुस्तक ऐसी होगी, जो अपनी संपूर्णता में अच्छी लगेगी. जरूरी नहीं है कि इससे हमारे ज्ञान में इजाफा होगा, पर यह जरूर होगा कि हमें समाज के वर्तमान ट्रेंड के बारे में पता चलेगा.

ठीक इसी तरह नॉन फिक्शन की किताबों में जरूरी नहीं कि एक ही किताब में सारी बातें मिल जाएं. आखिर कोई लेखक एक ही किताब में कैसे सारी बातें लिख देगा? और लिख देगा तो बाकी किताबों में क्या लिखेगा? बहुधा ऐसा होगा कि एक किताब में दो या तीन पॉइंट मिलेंगे जो काम के होंगे. पर एक सामान्य पाठक इस बात को नहीं समझता, क्योंकि उसकी ट्रेनिंग ही इस हिसाब से नहीं हुई है. वो लेखकों को पैगंबर मानता है और किताबों को कुरान.

इससे समस्या यह उत्पन्न हुई है कि पाठक अपने हिसाब से किताबें नहीं खरीदना चाहता, वो पीअर प्रेशर यानी कि उसके आस पास के लंठों के दबाव से जो सरफेस टेंशन उत्पन्न होता है, उसमें बहकर वो किताब खरीदता है. पसंद ना भी आए तो उसे अच्छा बताता है. इसकी वजह से उसके आत्मसम्मान को भी ठेस पहुंचती है पर उसे स्वीकार नहीं करता. लंबे समय तक इस अस्वीकार्यता से कुंठा उत्पन्न होती है जो उसे दूसरों के प्रति ईर्ष्यालु और क्रोधी बनाती है. विशेषकर उनके प्रति जो अंग्रेजी जानते हैं और अंग्रेजी की किताबें दनादन डाउनलोड कर पढ़ लेते हैं. ये डाउनवार्ड स्पाइरल घटना बन जाती है और हिंदी के पाठक की बार्गेनिंग शक्ति खत्म हो जाती है. वो अपने लेखकों से कभी यह जिद नहीं करता कि उसे किस विषय पर किताब चाहिए, जिसे वो मिस कर रहा है. ना ही लेखक उसे सरप्राइज करने की आकांक्षा रखते हैं. लेखक उसे और रगेदने की इच्छा रखते हैं. रूक जा अपराधी, तूने अगर मेरी मिडिल क्लास वाले छात्र पर पुस्तक पढ़ी तो देख उसे हाई स्कूल में भेजकर फिर उसकी कहानी तुझे सुनाता हूं. तूने सेठ की मर्डर मिस्ट्री पढ़ी तो ले अब, उसकी सेठानी की मर्डर मिस्ट्री पढ़. तूने मेरे पहाड़ों में बिताये दिनों पर किताब पढ़ी तो ले अब वो भी पढ़ जब मैं अपने ननिहाल में रहता था. आत्मसम्मान का मारा पाठक, उसे स्वीकार करते जाता है. वहीं लेखक खुद को महान समझने लगता है.

खैर, यह तो बहुत ही विचित्र और नकारात्मक चित्रण हो गया. इसका उपाय क्या है वैसे? इसका उपाय है कि किताबें खरीदें. उसके पन्ने पलटकर देखें, दो चार लाइनें पढ़ें, एक दो पैराग्राफ अलग पेज पर पढ़ें और किताब खरीदें. फिर उस पर अपनी राय व्यक्त करें. किताब में क्या अच्छा लगा, क्या अच्छा हो सकता था, किस काल खंड की है किताब, किन भावनाओं को दर्शाती है, क्या अपेक्षायें हैं लेखक से, क्या डिबेटेबल है किताब में, प्रोग्रेसिव है या प्रतिक्रियावादी है, इस किताब की पॉलिटिक्स क्या है, इन सारी चीजों पर बात करे. कोई सुनना ना चाहे तो सोशल मीडिया पर, ब्लॉग पर लिखें. Goodreads पर अंग्रेजी की पुस्तकों की तरह हिंदी का भी कल्चर विकसित होगा. फिर वहां आप आसानी से पढ़कर पता कर सकते हैं कि कौन सी पुस्तक आपके पढ़ने योग्य है.

बहुत बार ऐसा होगा कि आपकी खरीदी किताब अच्छी नहीं निकलेगी. तो क्या हो गया? क्या सारी फिल्में अच्छी निकलती हैं? क्या हमारी खरीदी सारी चीजें अच्छी होती हैं? नहीं ना! फिर पुस्तकों को लेकर इतनी कृपणता क्यों? पर एक बात ध्यान देने लायक है. किताबों के साथ एक बेनिफिट होता है. दिमाग में हमेशा क्लाउड छाये रहते हैं, जो कभी छंटे तो कोई भी किताब अच्छी लग सकती है. आप छह महीने से कोने में किताब रखे रहेंगे, अचानक पढ़ेंगे और अच्छी लगेगी. तो पुस्तकें इंतजार करती हैं अपने पाठकों का. वह अच्छा लगना ही द्योतक है इस बात का कि किताबें रेगुलर खरीदी जानी चाहिए. अच्छी-बुरी, जैसी भी हों. और तभी पाठक की बार्गेनिंग पावर बढ़ेगी, लेखक और प्रकाशक नये विषयों पर किताबें लाएंगे.

एक सामान्य पाठक के लिए: साहित्य में क्या पढ़ें और कैसे पढ़ें?

डिस्क्लेमर: बिल्कुल सामान्य पाठकों के लिए जो पैसे देकर किताब खरीदते हैं. तुर्रम खां के लिए नहीं, जिन्हें सब कुछ पता होता है. उनको दूर से प्रणाम. ये मेरी धृष्टता नहीं है ज्ञान बांटने की बल्कि कुछ लोगों की मदद के लिए है, जो किताबों के भंवर में डूबते उतराते हैं और कभी प्यार कर बैठते हैं, कभी नफरत. पर पढ़ते जरूर हैं.

अभी हम मुख्यतया दो तरह की किताबों की चर्चा करेंगे: उपन्यास और कहानी की किताबें. चर्चा का मूल विषय यही है कि इन दो तरह की किताबों को कैसे पढ़ा जाए ताकि समय का सदुपयोग हो और पढ़ने का फायदा हो. मेरा यह मानना है कि कहानियां (उपन्यास और शॉर्ट स्टोरीज दोनों) पढ़ने से हम खुद के प्रति ज्यादा सचेत होते हैं. यह एक सबसे बड़ा फायदा होता है जो हमें हमारी भावनाओं के नजदीक लाता है.

उदाहरण के तौर पर, जब हम कोई कहानी पढ़ते हैं तो किसी विशेष मोड़ पर या शब्द पर हमारे हृदय में कुछ ट्रिगर होता है, हमें उसको नोटिस करना चाहिए. जैसे कि उपन्यास ‘रागदरबारी’ में वैद्य जी की विशेष टिप्पणी या शनिचर की हरकतें या पहलवानों की बातें. कहीं कहीं रंगनाथ की खुद के प्रति सोची गई बातें. या फिर प्रेमचंद की कहानी ‘बड़े भाई साहब’ में बड़े भैया का ज्ञान और उनका लटक जाना. या फिर नीलोत्पल मृणाल के उपन्यास ‘औघड़’ में वामपंथ को लेकर किया गया हास्य. आप इन जगहों पर ठहरना चाहते हैं, हृदय इंडिकेशन देता है, पर हम कहानी पढ़ने की चाह में आगे बढ़ जाते हैं. ऐसे मौकों पर हमें थोड़ा रुककर खुद की भावनाओं को सुनना चाहिए. आखिर क्या था ऐसा जो हमें ट्रिगर कर रहा था. संभव हो तो उसे नोट भी कर लें. इससे पता चलता है कि कैरेक्टर की किन बातों से या कहानी के किस मोड़ पर हमें क्या अनुभव हो रहा था.

इस चीज को विस्तार से समझने के लिए हमें पढ़ते समय कुछ बातों का ख्याल रखना होगा. कहानी की शुरुआत, कहानी की सेटिंग, कैरेक्टर की क्या इमेज बन रही है मन में, वो किस तरह से अपने डायलॉग कहता है और उसके लिए किन शब्दों का इस्तेमाल करता है, इन पर गहरी निगाह रखनी चाहिए. कोई भी कहानी पैराग्राफ में कही जाती है. पैराग्राफ का बिल्डिंग ब्लॉक है वाक्य और वाक्यों का बिल्डिंग ब्लॉक है शब्द. जब पैराग्राफ में रिदम नजर आए और पढ़ते समय किसी म्यूजिक लहरी का भान हो तो सबसे ज्यादा मजा आता है. आपने महसूस किया होगा कि पढ़ते हुए कहीं कहीं पर बहुत मजा आता है, लगता है जैसे समंदर में नाव लेकर निकले हों और फिर ऐसा लगता है कि पानी की लहर वापस चली गई, हम जमीन पर आ गए.

ठीक इसी तरह हमें इन बातों का ध्यान रखना चाहिए कि कहानी कहां पर बदल रही है. अगर कहानी की शुरुआत हमारे मुख्य पात्र से हो रही है तो वो क्या चाहता है. ये स्पष्ट होना चाहिए. जब हमें पता चल जाता है कि पात्र क्या चाहता है तब हमें पढ़ने में ज्यादा मजा आता है. बहुधा पात्रों की चाहत के बारे में क्लियर कट लिखा होता है जैसे जयशंकर प्रसाद की कहानी ‘काशी का गुंडा’ में गुंडे के बारे में पता है कि वो क्या चाहता है, वहीं चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी ‘उसने कहा था’ में अंदाजा रहते हुए भी सस्पेंस बना रहता है कि पात्र चाहता क्या था. हालांकि ध्यान देने पर समझ आ जाता है. यही ध्यान देने की चीज है, क्योंकि बहुत बार यह भी होता है कि लेखक स्पष्ट नहीं करता कि पात्र को क्या चाहिए, अंडरकरेंट में रहता है.

फिर हमें ध्यान देना होता है कि मुख्य पात्र की चाहत में कौन है जो विघ्न उत्पन्न कर रहा है. यह कहानी का मुख्य विलेन होता है. कई बार यह विलेन एक व्यक्ति होता है, कई बार भाग्य होता है, कई बार नायक स्वयं होता है और कई बार अन्य स्थितियां होती हैं. हमें पहचानना होता है कि नायक को उसके लक्ष्य तक पहुंचने में कौन सी शक्तियां बाधा डाल रही हैं.

इसके अलावा अन्य पात्र होते हैं, जिनके रोल या तो कुछ डिटेलिंग के साथ होते हैं या फिर बस उनको फिलर के तौर पर रख लिया जाता है. जब डिटेलिंग के साथ होते हैं तो पढ़ने में आनंददायक हो जाता है. आप मुख्य पात्र और विलेन के बारे में पढ़ रहे होते हैं और अचानक से किसी ऐसे पात्र की कहानी आ जाती है जो एकदम अलग सेटिंग में होती है. जैसे चंदर और सुधा की कहानी के बीच पम्मी की एंट्री. जी, मैं ‘गुनाहों का देवता’ की बात कर रहा हूं.

अब अगर शॉर्ट स्टोरीज पढ़ रहे हैं या फिर उपन्यास भी पढ़ रहे हैं तो उसमें कई ऐसी चीजें होती हैं जो कहानी की सामान्य धारा से अलग होती हैं. वो रेफरेंसेज होते हैं. कई बार वो वर्तमान पर कमेंट्री होता है या फिर ऐतिहासिक चीजों का छिपा हुआ उल्लेख होता है. कई बार हमारे समाज पर व्यंग्य होता है. जब तक आप उनका पूरा मतलब नहीं समझेंगे, कहानी पढ़ने का पूरा मजा नहीं आएगा. बहुत बार कहानियों में पात्रों के नाम, बिल्डिंगों के नाम या फिर कोई ऐसा वाक्य होता है जिस पर हम ध्यान नहीं देते. पर ध्यान देते ही मजा एकदम दुगुना हो जाता है. उदाहरण के तौर पर उपन्यास रागदरबारी का पात्र लंगड़. वो महज गांव का एक पात्र नहीं है, बल्कि वो हमारे सिस्टम का नाम है. उसके माध्यम से लेखक ने हमारे सिस्टम को दिखाया है जो कि लंगड़ा है. वो पात्र पूरे उपन्यास में नकल निकालने जाता है, यानी कि एक कागजात की फोटोकॉपी लेने जाता है औऱ वो उसे नहीं मिलता. जिन्होंने मेरी कहानियां पढ़ी होंगी, उन्हें याद होगा कि मैंने उनमें अपने परिवार से जूझते लड़के का नाम श्रवणकुमार रखा था. इसी तरह अपने नेता की पत्नी से इश्क लड़ाते पात्र का नाम गौतम था. जबकि उसके नेता का नाम पुरंदर था और उसकी पत्नी का नाम शची था. ये तीनों ही पात्र अहिल्या की कहानी से लिए गये हैं. गौतम-अहिल्या और इंद्र की कहानी को यहां उलटा कर लाया गया है. पुरंदर का मतलब इंद्र ही होता है. जिन्होंने इस बात को पकड़ा, उन्हें बहुत खुशी हुई. ये जरूरी नहीं है कि हर लेखक अपनी कहानी में यही सोचकर नाम रखता है, पर बहुत बार लोग ऐसा करते हैं.

इसके अलावा हमें कहानी की थीम और सेटिंग को भी ध्यान में रखना चाहिए. कहानी किस वक्त की है, इसके क्या पॉलिटिकल संदर्भ हैं, क्या सामाजिक संदर्भ हैं. ये कहानी किन भावों को जन्म दे रही है. कंजर्वेटिव चीजों को प्रमोट कर रही है या फिर समाज पर प्रश्न खड़ा कर रही है या बिना कुछ कहे निकल जा रही है. थोड़ा सा ध्यान देने पर ये सारी चीजें समझ आ जाती हैं.

कहने का मतलब कि लेजी होकर पढ़ने के बजाय थोड़ा सा ध्यान देकर पढ़ें तो शब्द, वाक्य और पैराग्राफ के बीच तारतम्य बैठा पाएंगे और ये पढ़ने का आनंद दुगुना कर देगा. साथ ही साहित्यिक नॉलेज बढ़ाने में मदद करेगा और हम लेखक की बात को ज्यादा अच्छे से समझ पाएंगे. यही नहीं, एक समझदार पाठक की तरह कमेंट भी कर पाएंगे. यहीं तक सीमित नहीं रहेंगे कि बहुत अच्छी लगी या फिर बहुत बुरी लगी. जब बताएंगे कि अच्छी लगी तो उदाहरण के साथ बताएंगे कि कौन सा पैरा अच्छा लगा, कौन सा पात्र अच्छा लगा और क्यों, किस पात्र के मोटिवेशन अच्छे लगे, किसके इरादे नेक नहीं थी. किस पात्र का रोल कट गया और बड़ा होना चाहिए था. या फिर कुछ बुरा लगा तो क्यों लगा. मतलब कि अगर उपन्यास की सर्जरी करनी है तो अच्छे से करेंगे ताकि लेखक को भी अच्छा लगेगा. उसको गींज नहीं देंगे, बींध नहीं देंगे, ना ही लेखक पर वक्रोक्तियां बरसाएंगे- ‘कुछ लोग समझते हैं कि वो बहुत बड़े लेखक हो गये हैं’ टाइप की बातें. बल्कि एक संवाद प्रक्रिया का हिस्सा बनेंगे.